राग सारंग जो पै हरिहिं न सस्त्र गहाऊं। तौ लाजौं गंगा जननी कौं सांतनु-सुतन कहाऊं॥ स्यंदन खंडि महारथ खंडौं, कपिध्वज सहित डुलाऊं। इती न करौं सपथ मोहिं हरि की, छत्रिय गतिहिं न पाऊं॥ पांडव-दल सन्मुख ह्वै धाऊं सरिता रुधिर बहाऊं। सूरदास, रणविजयसखा कौं जियत न पीठि दिखाऊं॥ राग धनाश्री जौ बिधिना अपबस करि पाऊं। तौ सखि कह्यौ हौइ कछु तेरो, अपनी साध पुराऊं॥ लोचन रोम-रोम प्रति मांगों पुनि-पुनि त्रास दिखाऊं। इकटक रहैं पलक नहिं लागैं, पद्धति नई चलाऊं॥ कहा करौं छवि-रासि स्यामघन, लोचन द्वे, नहिं ठाऊं। एते पर ये निमिस सूर , सुनि, यह दुख काहि सुनाऊं॥ राग नट जौलौ सत्य स्वरूप न सूझत। तौलौ मनु मनि कंठ बिसारैं, फिरतु सकल बन बूझत॥ अपनो ही मुख मलिन मंदमति, देखत दरपन माहीं। ता कालिमा मेटिबै कारन, पचतु पखारतु छाहिं॥ तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत। कहत बनाय दीप की बातैं, कैसे कैं तम नासत॥ सूरदास, जब यह मति आई, वै दिन गये अलेखे। कह जानै दिनकर की महिमा, अंध नयन बिनु देखे॥ राग मलार तजौ मन, हरि बिमुखनि कौ संग। जिनकै संग कुमति उपजति है, परत भजन में भंग। कहा होत पय पान कराएं, बिस नही तजत भुजंग। कागहिं कहा कपूर चुगाएं, स्वान न्हवाएं गंग। खर कौ कहा अरगजा-लेपन, मरकट भूसण अंग। गज कौं कहा सरित अन्हवाएं, बहुरि धरै वह ढंग। पाहन पतित बान नहिं बेधत, रीतौ करत निषंग। सूरदास कारी कमरि पै, चढत न दूजौ रंग। तबतें बहुरि न कोऊ आयौ। वहै जु एक बेर ऊधो सों कछुक संदेसों पायौ॥ छिन-छिन सुरति करत जदुपति की परत न मन समुझायौ। गोकुलनाथ हमारे हित लगि द्वै आखर न पठायौ॥ यहै बिचार करहु धौं सजनी इतौ गहरू क्यों लायौ। सूर, स्याम अब बेगि मिलौ किन मेघनि अंबर छायौ॥ तिहारो दरस मोहे भावे श्री यमुना जी । श्री गोकुल के निकट बहत हो, लहरन की छवि आवे ॥१॥ सुख देनी दुख हरणी श्री यमुना जी, जो जन प्रात उठ न्हावे । मदन मोहन जू की खरी प्यारी, पटरानी जू कहावें ॥२॥ वृन्दावन में रास रच्यो हे, मोहन मुरली बजावे । सूरदास प्रभु तिहारे मिलन को, वेद विमल जस गावें ॥३॥ राग लारंग तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान। छूटि गये कैसे जन जीवै, ज्यौं प्रानी बिनु प्रान॥ जैसे नाद-मगन बन सारंग, बधै बधिक तनु बान। ज्यौं चितवै ससि ओर चकोरी, देखत हीं सुख मान॥ जैसे कमल होत परिफुल्लत, देखत प्रियतम भान। दूरदास, प्रभु हरिगुन त्योंही सुनियत नितप्रति कान॥ राग मलार दियौ अभय पद ठाऊँ तुम तजि और कौन पै जाउँ। काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ॥ ऐसौ को दाता है समरथ, जाके दियें अघाउँ। अन्त काल तुम्हरैं सुमिरन गति, अनत कहूँ नहिं दाउँ॥ रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय पद ठाउँ। कामधेनु, चिंतामनि दीन्हौं, कल्पवृच्छ-तर छाउँ॥ भव-समुद्र अति देखि भयानक, मन में अधिक डराउँ। कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ॥ राग केदारा है हरि नाम कौ आधार। और इहिं कलिकाल नाहिंन रह्यौ बिधि-ब्यौहार॥ नारदादि सुकादि संकर कियौ यहै विचार। सकल स्रुति दधि मथत पायौ इतौई घृत-सार॥ दसहुं दिसि गुन कर्म रोक्यौ मीन कों ज्यों जार। सूर, हरि कौ भजन करतहिं गयौ मिटि भव-भार॥ राग घनाक्षरी हरि पालनैं झुलावै जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥ मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै। तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥ कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं। सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै॥ इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै। जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥ राग बिलावल मुख दधि लेप किए सोभित कर नवनीत लिए। घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥ चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए। लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥ कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए। धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥ रामकली राग कबहुं बढ़ैगी चोटी मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी। किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥ तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी। काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥ काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी। सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥ राग गौरी दाऊ बहुत खिझायो मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो। मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥ कहा करौं इहि रिस के मारें खेलन हौं नहिं जात। पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात॥ गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात। चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥ तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै। मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि सुनि रीझै॥ सुनहु कान बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत। सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत॥ राग रामकली मैं नहिं माखन खायो मैया! मैं नहिं माखन खायो। ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥ देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो। हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो॥ मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो। डारि सांटि मुसुकाइ जसोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥ बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो। सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥ राग रामकली हरस आनंद बढ़ावत हरि अपनैं आंगन कछु गावत। तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत॥ बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत। कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर में आवत॥ माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत। कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत॥ दुरि देखति जसुमति यह लीला हरस आनंद बढ़ावत। सूर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत॥ राग गौरी भई सहज मत भोरी जो तुम सुनहु जसोदा गोरी। नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी॥ हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी। रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी॥ मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी। जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी॥ लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी। सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी॥ राग देव गंधार अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया। नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया॥ ऊंच चढि़ चढि़ कहति जसोदा लै लै नाम कन्हैया। दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया॥ गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया॥ राग रामकली कबहुं बोलत तात खीझत जात माखन खात। अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात॥ कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात। कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात॥ कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात। सूर हरि की निरखि सोभा निमिस तजत न मात॥ राग कान्हड़ा चोरि माखन खात चली ब्रज घर घरनि यह बात। नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात॥ कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ। कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ॥ कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम। हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम॥ कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि। कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि॥ सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार। जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुस नंदकुमार॥ राग रामकली गाइ चरावन जैहौं आजु मैं गाइ चरावन जैहौं। बृन्दावन के भांति भांति फल अपने कर मैं खेहौं॥ ऐसी बात कहौ जनि बारे देखौ अपनी भांति। तनक तनक पग चलिहौ कैसें आवत ह्वै है राति॥ प्रात जात गैया लै चारन घर आवत हैं सांझ। तुम्हारे कमल बदन कुम्हिलैहे रेंगत घामहि मांझ॥ तेरी सौं मोहि घाम न लागत भूख नहीं कछु नेक। सूरदास प्रभु कह्यो न मानत पर्यो अपनी टेक॥ | राग सारंग आनि सँजोग परै भावि काहू सौं न टरै। कहँ वह राहु, कहाँ वे रबि-ससि, आनि सँजोग परै॥ मुनि वसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै। तात-मरन, सिय हरन, राम बन बपु धरि बिपति भरै॥ रावन जीति कोटि तैंतीसा, त्रिभुवन-राज करै। मृत्युहि बाँधि कूप मैं राखै, भावी बस सो मरै॥ अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै। द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै॥ हरीचंद-सौ को जग दाता, सो घर नीच भरै। जो गृह छाँडि देस बहु धावै, तऊ वह संग फिरै॥ भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै। सूरदास प्रभु रची सु हैहै, को करि सोच मरै॥ राग रामकली उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥ सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस। स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥ तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस। सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥ राग सारंग ऊधो, मन माने की बात। दाख छुहारो छांड़ि अमृतफल, बिसकीरा बिस खात॥ जो चकोर कों देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात। मधुप करत घर कोरि काठ में, बंधत कमल के पात॥ ज्यों पतंग हित जानि आपुनो दीपक सो लपटात। सूरदास, जाकौ जासों हित, सोई ताहि सुहात॥ राग मारू ऊधो, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। बृंदावन गोकुल तन आवत सघन तृनन की छाहीं॥ प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत। माखन रोटी दह्यो सजायौ अति हित साथ खवावत॥ गोपी ग्वाल बाल संग खेलत सब दिन हंसत सिरात। सूरदास, धनि धनि ब्रजबासी जिनसों हंसत ब्रजनाथ॥ राग मलार ऊधो, हम लायक सिख दीजै। यह उपदेस अगिनि तै तातो, कहो कौन बिधि कीजै॥ तुमहीं कहौ, इहां इतननि में सीखनहारी को है। जोगी जती रहित माया तैं तिनहीं यह मत सोहै॥ कहा सुनत बिपरीत लोक में यह सब कोई कैहै। देखौ धौं अपने मन सब कोई तुमहीं दूसन दैहै॥ चंदन अगरु सुगंध जे लेपत, का विभूति तन छाजै। सूर, कहौ सोभा क्यों पावै आंखि आंधरी आंजै॥ राग टोडी ऊधो, होहु इहां तैं न्यारे। तुमहिं देखि तन अधिक तपत है, अरु नयननि के तारे॥ अपनो जोग सैंति किन राखत, इहां देत कत डारे। तुम्हरे हित अपने मुख करिहैं, मीठे तें नहिं खारे॥ हम गिरिधर के नाम गुननि बस, और काहि उर धारे। सूरदास, हम सबै एकमत तुम सब खोटे कारे॥ राग बिलावल ऐसैं मोहिं और कौन पहिंचानै। सुनि री सुंदरि, दीनबंधु बिनु कौन मिताई मानै॥ कहं हौं कृपन कुचील कुदरसन, कहं जदुनाथ गुसाईं। भैंट्यौ हृदय लगाइ प्रेम सों उठि अग्रज की नाईं॥ निज आसन बैठारि परम रुचि, निजकर चरन पखारे। पूंछि कुसल स्यामघन सुंदर सब संकोच निबारे॥ लीन्हें छोरि चीर तें चाउर कर गहि मुख में मेले। पूरब कथा सुनाइ सूर प्रभु गुरु-गृह बसे अकेले॥ राग बिलावल कब तुम मोसो पतित उधारो। पतितनि में विख्यात पतित हौं पावन नाम तिहारो॥ बड़े पतित पासंगहु नाहीं, अजमिल कौन बिचारो। भाजै नरक नाम सुनि मेरो, जमनि दियो हठि तारो॥ छुद्र पतित तुम तारि रमापति, जिय जु करौ जनि गारो। सूर, पतित कों ठौर कहूं नहिं, है हरि नाम सहारो॥ राग गोरी कहां लौं कहिए ब्रज की बात। सुनहु स्याम, तुम बिनु उन लोगनि जैसें दिवस बिहात॥ गोपी गाइ ग्वाल गोसुत वै मलिन बदन कृसगात। परमदीन जनु सिसिर हिमी हत अंबुज गन बिनु पात॥ जो कहुं आवत देखि दूरि तें पूंछत सब कुसलात। चलन न देत प्रेम आतुर उर, कर चरननि लपटात॥ पिक चातक बन बसन न पावहिं, बायस बलिहिं न खात। सूर, स्याम संदेसनि के डर पथिक न उहिं मग जात॥ राग घनाक्षरी कहां लौं बरनौं सुंदरताई। खेलत कुंवर कनक-आंगन मैं नैन निरखि छबि पाई॥ कुलही लसति सिर स्याम सुंदर कैं बहु बिधि सुरंग बनाई। मानौ नव धन ऊपर राजत मघवा धनुस चढ़ाई॥ अति सुदेस मन हरत कुटिल कच मोहन मुख बगराई। मानौ प्रगट कंज पर मंजुल अलि-अवली फिरि आई॥ नील सेत अरु पीत लाल मनि लटकन भाल रुलाई। सनि गुरु-असुर देवगुरु मिलि मनु भौम सहित समुदाई॥ दूध दंत दुति कहि न जाति कछु अद्भुत उपमा पाई। किलकत-हंसत दुरति प्रगटति मनु धन में बिज्जु छटाई॥ खंडित बचन देत पूरन सुख अलप-अलप जलपाई। घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित सूरदास बलि जाई॥ राग नट कहावत ऐसे दानी दानि। चारि पदारथ दिये सुदामहिं, अरु गुरु को सुत आनि॥ रावन के दस मस्तक छेद, सर हति सारंगपानि। लंका राज बिभीसन दीनों पूरबली पहिचानि। मित्र सुदामा कियो अचानक प्रीति पुरातन जानि। सूरदास सों कहा निठुरई, नैननि हूं की हानि॥ राग नट कहियौ जसुमति की आसीस। जहां रहौ तहं नंदलाडिले, जीवौ कोटि बरीस॥ मुरली दई, दौहिनी घृत भरि, ऊधो धरि लई सीस। इह घृत तौ उनहीं सुरभिन कौ जो प्रिय गोप-अधीस॥ ऊधो, चलत सखा जुरि आये ग्वाल बाल दस बीस। अबकैं ह्यां ब्रज फेरि बसावौ सूरदास के ईस॥ राग गौरी कहियौ, नंद कठोर भये। हम दोउ बीरैं डारि परघरै, मानो थाती सौंपि गये॥ तनक-तनक तैं पालि बड़े किये, बहुतै सुख दिखराये। गो चारन कों चालत हमारे पीछे कोसक धाये॥ ये बसुदेव देवकी हमसों कहत आपने जाये। बहुरि बिधाता जसुमतिजू के हमहिं न गोद खिलाये॥ कौन काज यहि राजनगरि कौ, सब सुख सों सुख पाये। सूरदास, ब्रज समाधान करु, आजु-काल्हि हम आये॥ राग कान्हरा कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज। महापतित कबहूं नहिं आयौ, नैकु तिहारे काज॥ माया सबल धाम धन बनिता, बांध्यौ हौं इहिं साज। देखत सुनत सबै जानत हौं, तऊ न आयौं बाज॥ कहियत पतित बहुत तुम तारे स्रवननि सुनी आवाज। दई न जाति खेवट उतराई, चाहत चढ्यौ जहाज॥ लीजै पार उतारि सूर कौं महाराज ब्रजराज। नई न करन कहत, प्रभु तुम हौ सदा गरीब निवाज॥ राग आसावरी खेलत नंद-आंगन गोविन्द। निरखि निरखि जसुमति सुख पावति बदन मनोहर चंद॥ कटि किंकिनी, कंठमनि की द्युति, लट मुकुता भरि माल। परम सुदेस कंठ के हरि नख,बिच बिच बज्र प्रवाल॥ करनि पहुंचियां, पग पैजनिया, रज-रंजित पटपीत। घुटुरनि चलत अजिर में बिहरत मुखमंडित नवनीत॥ सूर विचित्र कान्ह की बानिक, कहति नहीं बनि आवै। बालदसा अवलोकि सकल मुनि जोग बिरति बिसरावै॥ राग सोरठा जनम अकारथ खोइसि रे मन, जनम अकारथ खोइसि। हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि॥ निसि-दिन फिरत रहत मुँह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि। गोड़ पसारि परयो दोउ नीकैं, अब कैसी कहा होइसि॥ काल जमनि सौं आनि बनी है, देखि-देखि मुख रोइसि। सूर स्याम बिनु कौन छुड़ाये, चले जाव भई पोइसि॥ राग गौरी जसुमति दौरि लिये हरि कनियां। "आजु गयौ मेरौ गाय चरावन, हौं बलि जाउं निछनियां॥ मो कारन कचू आन्यौ नाहीं बन फल तोरि नन्हैया। तुमहिं मिलैं मैं अति सुख पायौ,मेरे कुंवर कन्हैया॥ कछुक खाहु जो भावै मोहन.' दैरी माखन रोटी। सूरदास, प्रभु जीवहु जुग-जुग हरि-हलधर की जोटी॥ राग धनाश्री जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै ॥ मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै । तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै ॥ कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै । सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै ॥ इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै । जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद-भामिनि पावै ॥ राग सोरठ जसोदा, तेरो भलो हियो है माई। कमलनयन माखन के कारन बांधे ऊखल लाई॥ जो संपदा दैव मुनि दुर्लभ सपनेहुं दई न दिखाई। याही तें तू गरब भुलानी घर बैठें निधि पाई॥ सुत काहू कौ रोवत देखति दौरि लेति हिय लाई। अब अपने घर के लरिका पै इती कहा जड़ताई॥ बारंबार सजल लोचन ह्वै चितवत कुंवर कन्हाई। कहा करौं, बलि जाउं, छोरती तेरी सौंह दिवाई॥ जो मूरति जल-थल में व्यापक निगम न खोजत पाई। सोई महरि अपने आंगन में दै-दै चुटकि नचाई॥ सुर पालक सब असुर संहारक त्रिभुवन जाहि डराई। सूरदास, प्रभु की यह लीला निगम नेति नित गई॥ राग गौरी धेनु चराए आवत आजु हरि धेनु चराए आवत। मोर मुकुट बनमाल बिराज पीतांबर फहरावत॥ जिहिं जिहिं भांति ग्वाल सब बोलत सुनि स्त्रवनन मन राखत। आपुन टेर लेत ताही सुर हरसत पुनि पुनि भासत॥ देखत नंद जसोदा रोहिनि अरु देखत ब्रज लोग। सूर स्याम गाइन संग आए मैया लीन्हे रोग॥ सूरदास के पद - भाग 1 सूरदास के पद - भाग 2 |